भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आदिम आग (कविता) / प्रताप सहगल
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:52, 14 अक्टूबर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रताप सहगल |अनुवादक= |संग्रह=आदि...' के साथ नया पन्ना बनाया)
आज भी आदमी के नाखूनों में
ज़िन्दा है यह आग
यह आग
हमारी जीभ की
नोक पर रखी है।
कभी धर्म
कभी ईमान
और कभी सम्प्रदाय के सहारे
फैलती है
यह आग।
न जिस्मानी,
न रुहानी
एक तिलिस्म से फूटती है
धधकती है
और लीलती है आग
पेड़
बच्चे
देश।
सिर उठाकर खड़े आदमी की धमनियों में
जम जाता है खून
आग ज़िन्दा है
जमते खून को ललकारती
आग ज़िन्दा है
सड़कों और घरों में फैलती
आग ज़िन्दा है।
हज़ारों आक्टोपस
के
लाखों हाथों से भी खतरनाक
आग ज़िन्दा है
इस आग दुर्ग में हैं
हम सब।
धर्म-ईमान की दिलफरेब मीनारों में बन्द
जल रहे हैं
धू-धू करते हुए
कुन्दन नहीं बनाती
एक स्याह चादर डाल देती है
आदमी के समूचे अस्तित्व पर
यह आग।
सबसे पहले कौन मारेगा
कौन मारेगा
यह आग?
1982