भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अक्तूबर की वह शाम / प्रताप सहगल
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:54, 14 अक्टूबर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रताप सहगल |अनुवादक= |संग्रह=आदि...' के साथ नया पन्ना बनाया)
पहली शाम थी हमारी
हम कैद थे एक होटल में
बाहर तेज़ सनसनाहट
झूलते पेड़
खिड़कियों पर दस्तक देती हवा
तेज़ बारिश के छींटे
मैं भीगना चाहता था
और शशि बार-बार मुझे
पकड़ लेती थी
एक तेज़ तूफान
बाहर-बाहर से ही गुज़र गया
तब कहीं खिड़की खुली
सामने डल थी
तैर रहे थे उसमें घर
और खामोश खड़े थे शिकारे
(शायद सो रहे थे)
सो रही थी हमारी बेटी भी।
तैरते घरों की एक पेंटिंग बनाकर
मैंने आंखों में भर ली
और पलके मूंदकर लेट गया।
1976