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अपनी पहचान: बरास्ते कविता / प्रताप सहगल

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मैं जग को समझा पाऊंगा
टिप्पण करने से इनकार
मैं अपना विज्ञान अनिश्चित
निश्चित लेकर
बंधा हुआ रक्तिम डोरों से
या काले दायरों के भीतर
भोग रहा हूं अपना जीवन
मेरी सांसें घर्षण खाकर
निकल रही हैं।
मैं केवल उथला-उथला-सा
अखबारों से चिपक-चिपककर
उगल-उगल देता हूं बलग़म
और ज़रा खामोश ठहरकर
किसी नरम-नरम चेहरे पर
अपनी दृष्टि ज़रा गड़ाकर
घूरा करता
पैना करके नाखूनों को
मैं हथेलियां भर लेता हूं
और उठाकर अपने बाज़ू
करता हूं भयानक उद्घोष
कोई क्रांति आने वाली
या आने वाला तूफान
और तभी मेरा समाज
मृग-शावक हो
किसी भी टूटे-उजड़े या अधजले
घरौंदे में
अपना अस्तित्व छिपा लेता है
और मेरी छोटी बातों को
दे नारों का रूप
उन्हें तख्ती पर लिखकर
भरी रात में कहीं टांगकर
ध्यान भीड़ का हर लेता है
मुझे बंद कर इस डिब्बे में
कोई घिसा, पिटा या टूटा
ढक्कन एक लगाकर उस पर
करता है उद्घोष निरन्तर
मुझको मेरा होने से
वंचित करने का प्रयास
अन्धे दायरों में बंद हुआ
इक निष्क्रिय बिंदु
अन्वेषण का दम्भ ओढ़कर
भटकाव में भटक-भटककर
हम सबको भटका देता है।

1969