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तब शासन उखड़ के रहता है / प्रताप सहगल

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जब बातें हों चाँद-सितारों की,
पर मिट्टी के काम न होते हों,
जब किसी अमीर के दरवाज़े,
कुछ निर्धन अश्क बहाते हों,
जब गोदाम भरे रहते हों,
और कहीं पर-
भूखे प्राणी,
निर्धन बच्चे,
बिलख-बिलखकर
बांध के पत्थर सोते हों।
और अगर पैसा केवल
'काला' बनकर रह जाता हो,
और अगर निर्धन बेचारा,
गुज़र को रोता रहता हो,
चोरियां, डाके, बलवे
लूटपाट और मारपीट,
जिस तरफ भी देखो-
होती हो,
असहाय बेचारा पिटता हो,
लाठीवाला ले जाए भैंस
तब शासन उखड़ के रहता है।

जब अबलाएं शासन करती हों,
केवल चुगली का काम जिन्हें
या फैशन में गारत हो,
केवल विलास में रहती हों।
पिसता हो जब साधारण जन
हो पशेमान जीवन उसका,
संसद केवल
लम्बे-लम्बे,
झूठे-सच्चे,
कुछ तोड़-मोड़कर
इधर-उधर
विधान बनाती रहती हो।
जब नैतिकता रहे नहीं,
घूसखोर, भ्रष्टाचारी,
सब मंत्री बनते जाते हों,
फिर वही सभी अपनी धुन में
स्वयं चौधरी बन जाएं,
और कोई किसी की सुने नहीं,
जब पास सभी के अपनी ढफ
और अपना राग निराला हो,
तब शासन उखड़ के रहता है।

जब मज़दूरों और किसानों की,
कोई बात न सुनने वाला हो,
घड़ा अन्याय का भर जाए।
नेताओं ने-
जनता की आंखों पर
लम्बे-लम्बे झाड़ के भाषण
पर्दा धोखे का डाला हो।
सैनिक रक्षा जब नाम की हो
लेकिन हर युवक के सीने में
रक्षा के और बुलन्दी के
जज़्बात न हों।
लेकर नाम सुरक्षा का औरत को सजाया जाता हो
उसकी खातिर
रक्षा के कारखानों में
सौन्दर्य के सामान
खूब बनाए जाते हों।
काठ की हंडिया वालों के
जब चावल न पक पाते हैं
हंडिया उनकी जल जाती है,
तब शासन उखड़ के रहता है।

1964