आह्वान / शशि सहगल
एक लम्बी सड़क
सड़क पर खड़ा एक पेड़
पेड़ यह
आपको नज़र आता है
और मुझे
लगता है अपना देश
पेड़ को काटता है
आदमी
देश को भी काटने की
कोशिश करता है
आदमी।
सड़क के दूसरी ओर
फैले जंगलों का
कोई आदमी होता
तब भी बात समझ में आती है
पर
यह तो अपना आदमी है
नाच रहा है
जंगल की शह पर
भूल गया है
अपनी जमात का महत्व।
पेड़ पर नज़र आते हैं
मुझे
टँगे हुए सपने
सपनों को कोई नाम दे सकते हैं?
नहीं दे सकते।
मैं दे सकती हूँ उन्हें नाम
एक नाम है नेता सुभाष
एक नाम है भगतसिंह
एक नाम है खुदीराम
और...और...और
आँखों में संजोये
सपनों की बारात
तैरते हुए मेरी पुतलियों के बीचों-बीच
समा जाते हैं।
सोचती हूँ
क्या हुआ?
इन सपने भरी आँखों का
हमने इन सपनों को चुनने की बजाय
क्यों चुन लिये हैं
धर्म, भाषा, जाति या भूखण्ड के नाम
आदमी की जमात में शामिल लोग
कैसे हो रहे हैं
कोढ़ के शिकार?
आओ, हम अनाम सपनों को
ध्वस्त करें
नाम दें,
कोई बड़ा-सा नाम
नाम दें अपने सपनों को
और
सपनों के सुनहले उजाले में बाँध ले
यह अपना बड़ा पेड़।