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मुट्ठी बाँध आए कुछ नेकी ना कमाए / महेन्द्र मिश्र

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मुट्ठी बाँध आए कुछ नेकी ना कमाए,
माया में लुभाए तुम भरमें हो कहाँ-कहाँ।
दुष्टन संग बैठ-बैठ निनदा के खजाना कियो,
पापन की बोझ रही जइहो तू जहाँ-जहाँ।
बनके अभिमानी तू नादानी नहीं छोड़े मूढ़,
अबका करोगे अब तो जाना है वहाँ-वहाँ।
द्विज महेन्द्र मूँद गईं आँखें तब लाखें कहाँ,
घोड़े रथ पालकी सब रह गई जहाँ-तहाँ।