भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्रकृति और मैं / नीरजा हेमेन्द्र

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:14, 23 अक्टूबर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नीरजा हेमेन्द्र |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कर के जगती को धन्य तृप्त
आनन्द, हर्ष, नवगति, नव-सृष्टि,
धुल गयी धरा, धुल गये वृक्ष
सावन भी जाने को है,
ओ प्रवासी कब आओगे?
भाने लगे विहग के कलरव
अमलतास फूलों से भर गये,
प्रकृति ने कर लिया, नव श्रृंगार अब
दिन धूप भरे जाने को हैं,
ओ प्रवासी कब आओगे?
बंजर खेत भी हुए हरे
ताल-तलैया भर गयी है,
ओस बूँद की गयी मुझसे
पावस अब आने को है,
ओ प्रवासी कब आओगे?
दिवस आ गये अब पर्वों के
रातों में जुगनू उड़ते हैं,
झर-झर गिरती रजनीगंधा
झोंके पुरवा के यूँ बहते हैं,
निशा छुप गयी है पलकों में
अब प्रातः आने को है,
ओ प्रवासी कब आओगे?