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मितवा हमने / कुमार रवींद्र
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मितवा, हमने
मीनारों का
एक घना जंगल कल देखा
हमको शाप मिला था
उसमें जीने-दर-जीने चढ़ने का
लिखी इबारत थी उसमें जो
उसको उलटा ही पढने का
हर जीने पर
लिखे दुक्ख थे
हमने पढ़ा सुखों का लेखा
बित्ता-भर था आसमान
उसको छूने की होड़ लगी थी
छोटे-छोटे मिले घरौंदे
सबमें ही चल रही ठगी थी
जो थे
रजधानी के वासी
सबने लाँघी लक्ष्मण-रेखा
जड़ें नहीं थीं
सिर्फ हवा में लटकी हुईं
अमरबेलें थीं
पथराईं थीं सारी साँसें
जीत-हार की बस खेलें थीं
पतझर-ही- पतझर था
वन में
कैसे करें इसे अनदेखा