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काश, हम पक्षी हुए होते / कुमार रवींद्र
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काश !
हम पक्षी हुए होते
इन्हीं आदिम जंगलों में घूमते हम
नदी का इतिहास पढ़ते
दूर तक फैली हुई इन घाटियों में
पर्वतों के छोर छूते
रास रचते इन वनैली वीथियों में
फुनगियों से
बहुत ऊपर चढ़
हवा में नाचते हम
इधर जो पगडंडियाँ हैं
वे यहीं हैं खत्म हो जातीं
बहुत नीचे खाई में फिरती हवाएँ
हमें गुहरातीं
काश !
उड़कर
उन सभी गहराइयों को नापते हम
अभी गुज़रा है इधर से
एक नीला बाज़ जो पर तोलता
दूर दिखती हिमशिला का
राज़ वह है खोलता
काश !
हम होते वहीं
तो हिमगुफा के सुरों की आलापते हम