भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सुनो...हमसे / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:33, 23 अक्टूबर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार रवींद्र |अनुवादक= |संग्रह=र...' के साथ नया पन्ना बनाया)
सुनो..हमसे
धूप का संवाद
अब होता नहीं
रोज़ दिखते वही बच्चे
सुबह कूड़ा बीनते
शाह भी हैं वही
मुँह से कौर सबके छीनते
सुना...होरी
इन दिनों भी
रात भर सोता नहीं
राख बरसी दोपहर-भर
कहीं बस्ती है जली
देवता की आँख भी तो
हो गई है साँवली
नाम रटता था
प्रभू का
वह दिखा तोता नहीं
पाँव के नीचे हमारे
चुभ रहीं हैं सीपियाँ
हमें अंधा कर गईं
जलसाघरों की बत्तियाँ
गया कुचला
रथ-तले
वह शाह का पोता नहीं