भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बहुत दिनों से / कुमार रवींद्र

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:38, 23 अक्टूबर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार रवींद्र |अनुवादक= |संग्रह=र...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बहुत दिनों से
बंद पड़ा है यह दरवाज़ा
इसे खोलना होगा, साधो
 
इसके पार बड़ा आँगन है
पुरखों के बनवाये घर का
वहीं पाठ सीखा था पहला
हमने कल ढाई आखर का
 
एक आरती का दीया था
बड़ा पुराना
उसे खोजना होगा, साधो
 
आँगन में ही
हरसिंगार-नींबू-अनार के
पेड़ लगे थे
तब तितली-गौरैया-तोते
दुनिया भर से अधिक सगे थे
 
इधर क्यों नहीं
वे आ पाये जो थे अपने
सुनो, सोचना होगा, साधो
 
नये वक्त के चतुर जमूरे ने
सपने हमको दिखलाये
द्वार बंद कर
उसने हमको
दिये गुंबदों के ये साये
 
द्वार खोलने की खातिर भी
पिछले युग का
मंत्र बोलना होगा, साधो