भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यह यात्रा रही विकट / कुमार रवींद्र

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:06, 23 अक्टूबर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार रवींद्र |अनुवादक= |संग्रह=र...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यह यात्रा रही विकट
बार-बार
अनी चुभी पाँव में
 
गाँव- नगर सभी मिले
बरछों से बिंधे हुए
आँसू में भीगे दिन
और गले रुँधे हुए
 
अंतिम दिन
लूटे-पिटे पहुँचे हम
अंधों के गाँव में
 
रस्ते में एक झील
हमें मिली जहरीली
उसमें हम डूबे थे
देह अभी भी गीली
 
पार नहीं हुई झील
बैठे थे हम
कच्ची माटी की नाव में
 
खोजे से नहीं मिली
वंशीधुन- कुंज गली
भंते, है यही सत्य
होता है काल बली
 
आखिर में अपनी भी
साँस गई
कौड़ी के भाव में