दिन फागुन के / कुमार रवींद्र

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दिन फागुन के
और प्लास्टिक के फूलों से
सजा रही रितु अपना घर है
 
यह सुविधा है नये वक्त की
चाहे कहीं वसंत मना लो
'म्यूजिक सिस्टम' 'ऑन' करो
उसके संग फाग कभी भी गा लो
 
वान गॉग का चित्र टँगा
रितु के कमरे में
उसमें वासन्ती दुपहर है
 
फूल हुए इतिहास
सुनो, जो बंजर में भी खिलते थे कल
पिछले दिनों फिल्म में देखे
रितु ने हैं खेतों के आँचल
 
खबर आई है
झरी रात भर राख झील पर
केसरबाग हुआ बंजर है
 
'वैलेंटाइन डे' के सपने
रितु लाई है नये मॉल से
'डाट कॉम' पर नेह- सँदेशे
भेज रही वह गए-साल से
 
जहाँ जमा है
पुरखों का सब अंगड़-खंगड़
वहीं पड़ा ढाई आखर है

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