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नदी घाट पर / कुमार रवींद्र
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कितनी-कितनी
आवाजें हैं
आसपास जो फिरती रहतीं
अभी इधर से गई गुजर कर
किसी सगुनपंछी की बोली
मंदिर की घंटी सुनाई दी
कल ही हमने खिड़की खोली
जाने क्या-क्या
कहती रहतीं रोज़
हवाएं जो हैं बहतीं
आवाजाही की सडकों पर
सब्ज़ी के ठेलेवालों की
तेज हवा के झोंकों से
बतियाहट पेड़ों की डालों की
आवाज़ें ये
सारी मिलकर
साँसों की गाथाएँ कहतीं
सुबह जगातीं औचक हमको
दिन-भर रहतीं साथ हमारे
उम्र हो रही, भंते
अब तक इनके ही हम रहे सहारे
नदी-घाट पर
कुछ कहती हैं
हमने सुना- चिताएँ दह्तीं