भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बोलती आँखें / इमरोज़ / हरकीरत हकीर

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:41, 24 अक्टूबर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=इमरोज़ |अनुवादक=हरकीरत हकीर |संग्...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कुछ दिनों से
जब भी मैं उससे मिलता
वह मुझे सोचती - सोचती
देखती रहती
कभी हैरानी से भी देखती
कभी मुस्कुरा कर भी
इक दिन मुझे सामने बैठा कर
कहने लगी …
पहले तुम दुनिया देख आओ
फिर जो भी तुम कहोगे
मंज़ूर ….
मैं इन्तजार करुँगी
जितने दिन भी करना पड़ा
उसके सामने से उठ कर
मैंने उसके सात चक्कर लगाये
और हँसते - हँसते उसे कहा
देख ! मैं दुनिया देख आया हूँ
वैसे जिसे देखने की कोई जरुरत नहीं थी
अपनी तरह दुनिया देख आये को हँसते को
मुस्कुराती हैरानी से देखती
वह भी हँस पड़ी
और उसकी बोलती चमकती आँखों में अब
इन्तजार की जरुरत भी खत्म हो गई थी...