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कादम्बरी / पृष्ठ 114 / दामोदर झा

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79.
सुनिते हम अनठाय आन ठाँ झट चल गेलहुँ
शिवपूजाक फूल तोड़बामे चित्त लगओलहुँ।
आनो दिन ओ घूमि-घूमि लगमे चल आबय
नर्मालापे मनमे बहुत कष्ट पहुँचाबय॥

80.
कहलहुँ आबि तरलिकाके जे विप्र अबै अछि
बातचीतसँ एकर भाव बड़ मलिन लगै अछि।
कहिओ हमरा आश्रम केर निकटो नहि आयत
जँ आयत तँ एकर भयंकर फल ई पायत॥

81.
क्हलहुपर ओ मूर्ख जकाँ अनुसूति नहि छोड़लक
एकतरफे हमरापर अपन सिनेहो जोड़लक।
एक राति छल पूर्ण कलाधर मध्य गगनमे
छलय तरलिका सूतलि एहि ठाँ लता-भवनमे॥

82.
जगले पड़लि छलहुँ पाथरपर विधुपर दृग छल
पुण्डरीककेर सुमिरनमे मन छलय अचंचल।
देखल चीन्हल हाथ जोड़ि दौड़ल ओ आयल
विह्वल छल झट हमर चरणपर शीश झुकायल॥

83.
व्याकुल कहलक सुमुखि अहींक शरण आयल छी
जरबै अछि ई चन्द्र काम शरसँ घायल छी।
अपन शरीरक दाने हमरो प्राण बचयबे
ताहि पुण्यसँ कल्प समय सुरपुर सुख पयबे॥