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कादम्बरी / पृष्ठ 116 / दामोदर झा

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89.
कादम्बरी वदन नहि लोचन दरसन कयलहुँ
फूलहुसँ कोमल शरीर नहि परसन कयलहुँ।
आगू जहिआ हयत कहल खसि तरु सन काटल
मित्र वियोगे कोमल हुनक हृदय छल फाटल॥

90.
अनुचर गण चीत्कार मारि सब कानय लागल
होश करै लय नीर तीर सभ आनय लागल।
किन्तु कतय ओ आब यत्न सबटा कय हारल
दय दय गारि सराप विपिन रोदनहुँ पसारल॥

91.
ई राक्षसी प्रथम शुकनाशक वंश बिगाड़ल
जलदाता तारापीड़क घर देश उजाड़ल।
हिनके संग मरि जायब छोड़ि कतय हम जायब
उज्जयिनी जा कोना भूपके वदन देखायब॥

92.
ई लखि मूर्छित भेलि महाश्वेता धरतीपर
छीटय पानि तरलिका हुनका मुखपर तत्पर।
पातक पंखा हौंकय तैओ होश न पाबथि
जनु बेहोशी लाथे सबटा दुख बिसराबथि॥

93.
सेनापति बेहोश बलाहक नहि किछ जानथि
सब अनुचरगण पहिने हुनको मुइले मानथि।
साँस चलय देखल कर्तव्य विमूढ़ सकल जन
कानय पाड़ि भोकारि कँपाबय सर गिरि कानन॥