भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हे राधा-माधव! तुम दोनों दो मुझको चरणोंमें स्थान / हनुमानप्रसाद पोद्दार
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:05, 5 दिसम्बर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हनुमानप्रसाद पोद्दार |अनुवादक= |स...' के साथ नया पन्ना बनाया)
हे राधा-माधव! तुम दोनों दो मुझको चरणोंमें स्थान।
दासी मुझे बनाकर रखो, सेवाका अवसर दो दान॥
मैं अति मूढ़, चाकरीकी चतुराईका न तनिक-सा जान।
दीन नवीन सेविकापर दो समुद उँडेल सनेह अमान॥
रजकण सरस चरण-कमलोंका खो देगा सारा अजान।
ज्योतिमयी रसमयी सेविका मैं बन जाऊँगी सजान॥
राधा-सखी-मजरीको रख समुख मैं आदर्श महान।
हो पदानुगत उसके, नित्य करूँगी मैं सेवा सविधान॥
झाड्ू दूँगी मैं निकुजमें, साफ करूँगी पादत्रान।
हौले-हौले हवा करूँगी सुखद व्यजन ले सुरभित आन॥
देखा नित्य करूँगी मैं तुम दोनोंकी मोहनि मुसकान।
वेतन यही, यही होगा बस, मेरा पुरस्कार निर्मान॥