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नाथ! थाँरै सरण पड़ी दासी / हनुमानप्रसाद पोद्दार
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नाथ! थाँरै सरण पड़ी दासी।
(मोय) भव-सागरमें त्यार काटद्यो जनम-मरण-फाँसी॥
नाथ मैं भोत कष्टस्न् पाई।
भटक-भटक चौरासी जूणी मिनख-देह पाई।
मिटाद्यो दुःखाँकी रासी॥
नाथ! मैं पाप भोत कीना।
संसारी भोगाँकी आसा दुःख भोत दीना।
कामना है सत्यानासी॥
नाथ! मैं भगति नहीं कीनी।
झूठा भोगाँकी तृसनामें उमर खो दीनी।
दुःख अब मेटो अबिनासी॥
नाथ! अब सब आसा टूटी।
(थाँरै) श्रीचरणाँकी भगति एक है संजीवन-बूटी।
रहूँ नित दरसणकी प्यासी॥