भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

घाट से हटकर / गुलाब सिंह

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:22, 4 जनवरी 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गुलाब सिंह |संग्रह=बाँस-वन और बाँ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जाल है भीतर नदी के
घाट से हटकर नहाना।

पीठ पर लहरें, हवायें
झेलते हैं
आइने-सा
मुस्कराकर
आदमी से खेलते हैं

भीड़ से भीगे तटों के-
पत्थरों का क्या ठिकाना?

धार उल्टे पाँव चलकर
सीढ़ियों से
सट रही है,
फिर करोड़ों की इमारत
हाँ-नहीं में छँट रही है,

हर कदम पर सिर झुकाते
भूल बैठे सिर उठाना।

बाँस पर बैठे परिन्दे
हवा का
रुख भाँपते हैं,
जब हवेली में लगे-
रंगीन पर्दे काँपते हैं

एक शहजादी समय पर
छींट जाती चार दाना।