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अर्घ्य दे रही / गुलाब सिंह
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सुबह
शाख पर बैठी श्यामा
नाम पुकार रही डर-डर के।
अर्घ्य दे रही अँजुरी छलके
अधर हिल रहे हल्के-हल्के
भीगे केश
सिहरते कंधे
धुएँ उठ रहे धूप-अगर के।
देह, कथा-सी, रूप, आरती
उठती बाँहें पुष्पहार-सी।
साज सिंगार
प्यार मनुहारों
पूजा बने पड़ाव उमर के।
झुकी हुई टहनी की चिड़िया,
तुमने कैसी सुबह कर दिया!
सारे फूल
फूल लगते
जैसे बेदाग किसी चूनर के।