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सूर है न चन्द है / गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही'
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फ़ाटत ही खम्भ के अचम्भि रहे तीनों लोक,
शंकित वरुण है पवन-गति मन्द है ।
घोर गर्जना के झट झपटि झड़ाका जाय,
देहली पे दाव्यो दुष्ट दानव दुचन्द है ।।
पूर्यो वर कीन्हौ है अधूरो न रहन पायो,
तोरी देव वन्दि और फार्यो भक्त फन्द है ।
नर है न नाहर है, घर है न बाहर है,
दिन है न रात है, न सूर है न चन्द है ।।