भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मचलि रहे ता दिन मन मोहन / हनुमानप्रसाद पोद्दार

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:12, 6 जनवरी 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हनुमानप्रसाद पोद्दार |अनुवादक= |स...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मचलि रहे ता दिन मन मोहन, मैयाकी चढिबै को गोद।
सुनी नायँ मैया कछु तिनकी, लगी रही गृह-कार्य समोद॥
सुबुकि-सुबुकि रो रहे नीलमनि, रहे अजिर-कर्दम में लोट।
आँचर पकरि कही ’मैया’ तो‌हिं होन दन्नँ न्‌हिं आँखिन ओट॥
कैसे घर कौ काम करैगी, कैसे छोड़ जायगी मोय।
जोर करैगी तो बाबा कौं, मैं बुलवा लूँगौ अति रोय’॥
आ‌इ गये नारद बाबा तेहि छिन तहँ लीला देखि अनूप।
चकित, थकित ह्वै डूबि गये आनंदोदधि लखि हरि कौ रूप॥
बोले ’मैया ! तेरे कैसे पुन्य-पुंज तप तीव्र महान।
तेरी गोद चढऩ कों मचले, लोट रहे कीचड़ भगवान॥
विधि-हर-सुरपति बिबिध जतन करि पावत नायँ तनिक परसाद।
ललचाते तेरे प्रसाद कों पूर्न ब्रह्मा सो तजि मरजाद॥
या ब्रजभूमि, धूलि-कण याके दिय पुन्यमय अतिसय धन्य।
स्वयं सच्चिदानंद सन रहे जिनमें ह्वै सुख-मा अनन्य’॥
लोट-पोट हो गये, भूलि सुध-तुरतहि नारद प्रेम-‌अधीर।
’धन्य-धन्य मैं धन्य आज मम भयो सफल देवर्षि-सरीर’॥
गदगद बचन बोलि नारद ब्रज-रज की अति मधुरिमा सराह।
लै प्रसाद आनंद-मगन, उठि चले ब्रह्मा-मंदिर की राह॥