Last modified on 6 जनवरी 2014, at 20:01

गमन करत रबि लखि अस्ताचल / हनुमानप्रसाद पोद्दार

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:01, 6 जनवरी 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हनुमानप्रसाद पोद्दार |अनुवादक= |स...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

गमन करत रबि लखि अस्ताचल मनमोहन लै गोधन संग।
उतरि रहे गोबरधन गिरि ते; रँगे रँगीले नित नव रंग॥
त्रिविध सुगंध पवन मनभावन परसत स्याम सलोने अंग।
फहरत बसन सुमन बर माला प्रगटत प्रकृति विचित्र तरंग॥
अलि-कुल-मद-हरनी अलकावलि सिर सिखिपिच्छ मुकुट छबिसार।
नयन बिसाल रसाल चिाहर पल पल मोद बढ़ावनहार॥
मुरली बरसावत मधु रस अति उमगावत सब दिसि रसधार।
सोहत सुभग सुवेष नीलमनि सुषमा अमित करत बिस्तार॥