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निभृत-निकुज-मध्य निशि-रत / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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निभृत-निकुज-मध्य निशि-रत श्रीराधामाधव मधुर विलास।
मधुर दिव्य लीला-प्रमा वर बहा रहे निर्मल निर्यास॥
बरस रही रस सुधा मधुर शुचि छाया सब दिशि अति उल्लास।
लीलामय कर रहे निरन्तर नव-नव लीला ललित प्रकाश॥
सेवामयी परम चतुरा अति स्वसुख-वासनाहीन ललाम।
यथायोग साधन-सामग्री वे प्रस्तुत करतीं, निष्काम॥
’मधुर युगल हों परम सुखी’ बस, केवल यह इच्छा अभिराम।
निरख रहीं पवित्र नेत्रोंसे युगल मधुर लीला अविराम॥