प्रिया-प्रीतम नित करत बिहार / हनुमानप्रसाद पोद्दार
प्रिया-प्रीतम नित करत बिहार।
नित्य निकुंज परम सोभन सुचि माया-गुन-गो-पार॥
नहिं तहँ रबि-ससि की दुति, नहिं तहँ भौतिक अन्य प्रकास।
नित्य उदित दिव्याभा तनु की छाई रहत अकास॥
जिन की पद-नख-प्रभा ब्रह्मा बनि ग्यानी-जन-मन छाई।
जिन की ही सत्ता-प्रभुता सब जगमें रही समाई॥
जिन के हास-बिलास-रास-रस सब निरगुन हरि-रूप।
मायिक गुन प्रबिसत न तहाँ, चिन्मय सब वस्तु अनूप॥
दिव्य निकुंज मध्य नहिं संभव असरीरी-अस्तित्व।
बिलसित नित्य दिव्य अति भगवद्-रूप प्रेम कौ तव॥
सखी-मंजरी, सज्या-सोभा, लीला-साधन अन्य।
सबहि स्याम-स्यामामय, प्राकृत नाम, भए ते धन्य॥
कहत-सुनत-समुझत सोइ मानव, जो तजि भोगासक्ति।
रहत निरंतर सेवा-रत, जो करत भाव-रस भक्ति॥
सोइ देखत निकुंज की लीला अनुपम दिव्य महान।
जिन कों दै अधिकार दिखावत स्वयं जुगल भगवान्॥