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प्रभात किरण / गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही'

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                                 (1)
तमराज का शासन देख के लोक में, रोष के रंग में राती चली,
कर में बरछी लिए चण्डिका-सी, तिरछी-तिरछी मदमाती चली ।
नव जीवन-ज्योति जगाती चली, निशाचारियों को दहलाती चली,
फल कंचन-कोष लुटाती चली, मुसक्साती चली, बल खाती चली ।।
                                 (2)
फूटी जो तू उदयाचल से लटें लम्पट जोरों के भाग्य से फूटे,
टूटी जो तू तमचारियों पै गुम होश हुए उनके दिल टूटे ।
लूटी जो तूने निशाचरी माया तो लोक ने जीवन के सुख लूटे,
छूटी दिवा-पति अंक से तू मतवाले मिलिन्द भी बन्दि से छूटे ।।
                                 (3)
क्रूर कुकर्मियों का किया अन्त, अँधेरे में जो विष बीज थे बोते,
जाने उलूक लुके हैं कहाँ, फिर प्राण पड़े निज खोते में खोते ।
तोल रहे पर मत्त विहंग सरोज पै भृंग निछावर होते,
सोते उमंग के हैं उमगे, लगा आग दी तूने जगा दिए सोते ।।
                                 (4)
सुरलोक की है सुर-सुन्दरी तू कि स्वतन्त्रता की प्रतिमूर्ति सुहानी ।
जननी सुमनों की कि सौरभ की सखी धाई सनेही सनेह में सानी ।
जग में जगी ज्योति जवाहर-सी, गई जागृति देवी जहान में मानी ।
नव जीवन जोश जगा रही है, महरानी है तू किस लोक की रानी ।।
                                 (5)
क्षण एक नहीं फिर होके रहा थिर छिन्न तमिस्रा का घेरा हुआ,
लहराने प्रकाश-पताका लगी न पता लगा क्या वो अँधेरा हुआ ।
फिर सोने का पानी गया पल में, जिस ओर से तेरा है फेरा हुआ,
कहती, ’न पड़े मन मारे रहो, अब उट्ठो सनेही सवेरा हुआ ।।