पत्थर / धूप के गुनगुने अहसास / उमा अर्पिता
जब तुम मेरे
भविष्य का
आधार बनते-बनते
अतीत बन चले थे, तभी मैं
धीरे-धीरे
फूल से पत्थर में बदलने लगी थी
लगभग--
बदल ही चुकी थी!
भूल गयी थी कभी अपने
फूल होने के अहसास को,
लेकिन आज अचानक
तुम--
वर्तमान बन
भोर की किरणों के सदृश
मेरे पत्थरमय जीवन में
रस भरने लगे, तो
बरसों से दबा/सोया
फूल होने का अहसास
अपने व्यक्तित्व को
विस्तार देने के लिए मचल उठा
आखिर--
क्यों दे रहे हो तुम
मुझे इतना प्यार?
ऐसा न हो, कि
अब मैं
पत्थर से मोम हो जाऊँ
और
तुम्हारा गर्म स्पर्श मुझे पिघलाकर
अपनी चाहत की
दिशा में बहा ले जाये!
ओ मेरे अतीत के सुखद स्वप्न!
तुम एक बार फिर
मेरे वर्तमान में
मुसाफिर बन कर आये हो
यानी कि एक बार फिर
अतीत बन जाने को आये हो!
इतना सब जानते/समझते भी
क्यों क्षण-भर का मोह
मुझे मोह रहा है?
जाओ, मुझे और मत छलो!
हो सके तो लौट जाओ
और
मुझे पत्थर ही बना रहने दो।