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अनुभूतियों का क़फ़न / उमा अर्पिता

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तुम नहीं जानते
कि किस तरह मैं
पुरानी अनुभूतियों का
क़फ़न ओढ़कर जी रही हूँ।
तुम्हें/तुम्हें तो सिर्फ
मुस्कराहट ही दिखती है
क्या तुम उसके पीछे
उदासी की लकीरों को
करवट बदलते नहीं देखते?
उस कमरे में अभी तक
तुम्हारे अहसास की गंध बाकी है
मैंने उस गंध को जिया है,
जी भरकर जिया है
दीवारों से टकराकर
लौटती आवाजें हैं,
जिन्हें मैंने
सिसकते हुए सुना है।
उन खामोश पलों को मैंने
निगाहों में कैद करना चाहा था
शायद--
वह सब
आँसुओं के साथ बह गये!
तुम नहीं जानते
कि किस तरह मैं
अपने सामने मंजिल को
देखते हुए भी
कदम नहीं बढ़ा सकती
तुम नहीं जानते--
अनजान हो...!
तभी
दोष देते हो;
कोई बात नहीं
मुझे सब स्वीकार है,
यकीन करो
मेरे दोस्त
मैं घुटते वातावरण में
साँस ले रही हूँ,
मैं--
पुरानी अनुभूतियों का
क़फ़न ओढ़कर जी रही हूँ,
इस उम्मीद में/कि
यह क़फ़न
महज़ एक सिलसिला है
नई सुबह का!