भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

महानगर के सावन की एक शाम / उमा अर्पिता

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:27, 8 फ़रवरी 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=उमा अर्पिता |अनुवादक= |संग्रह=धूप ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बाहर सावन था
भीतर हलचल--
एक लहर तुम से
हो कर/मुझ तक आयी थी
और एक लहर ने
तुम्हें छू लिया था...

मन धानी दुपट्टे-सा लहराता/बार-बार
तुम्हें छूने को मचल उठता था--पर
आस-पास के वातावरण में
उग आयी थीं, जैसे
अनगिनत आँखें--
जिनके बीच
तुम्हारी आँखों की प्यास
और/कुछ और
गहराती जा रही थी--

सावन की रिमझिम
और तुम्हारा साथ--
शायद, इतना ही बहुत है...!
साथ भीगना ही है, तो
सपने किसलिए हैं-?

यथार्थ में किसी
सोये भाव को
स्पर्श से सहला न देना
मेरे दोस्त--
यह महानगर है, और तुम
जी रहो हो,
महानगर के
सावन की एक शाम--!