भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ये आवाज़ें कुछ कहती हैं-3 / तुषार धवल

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:51, 13 फ़रवरी 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=तुषार धवल |अनुवादक=ये आवाज़ें कुछ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इन बुलबुलों में दिन भर के परेशान शहर का शोर है
शहर अचानक शहर में निकल आता है और शहर थम जाता है
शहर की सहर जहाँ होती है
जिस पल के अन्दर उगा होता है उसका उजाला
वहीं पहुँचेगा निराशाओं के बाद एक दिन
एक दिन शहर बहुत खाँसेगा और उसके कण्ठ से निकल आएगी जली हुई वह कविता
उस दिन शहर रुक जाएगा कुछ देर
कुछ देर में बदल जाएगा
मकसदों का बेमकसद हो जाना बड़ी घटना है और उसी दिन धुरी बदलेगी
इस दौड़ की ---
मंज़िल भी मंज़िल नहीं है

इन बेमियाद तफ़सीलों का कहीं तो एक विराम है ही जहाँ से लौटेगी यह दौड़
नाभि की तरफ़