भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कभी / फ़्रेडरिक होल्डरलिन

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:21, 18 फ़रवरी 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=फ़्रेडरिक होल्डरलिन |अनुवादक=अम...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कभी तुम इतने क्षणिक हो गए हो ?
जिन गीतों से तुम्हें था इतना प्यार
                                कभी
क्या उनसे अब नहीं रह गया है प्रेम ?

जब तुम युवा थे
और गाया करते थे
तब आशा के उन दिनों में
क्या कभी तुमने पाया था
कोई ओर-छोर, या कोई अन्त ?
वैसा ही है मेरा गीत
जैसा था वह परम आनन्द ।
क्या अब भी तुम नहाओगे
डूबते सूरज की सुनहरी किरणों में ?
सन्ध्या चली गई है
धरती तःअण्डी है
और उल्लू
अब तुम्हारी आँखों के सामने
चिल्ला रहा है
          विकट स्वर में ।