भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

झुर झुर बहता पवन / विद्याधर द्विवेदी 'विज्ञ'

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:20, 24 फ़रवरी 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विद्याधर द्विवेदी 'विज्ञ' |अनुवाद...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

झुर झुर बहता पवन – पुलक से भरा प्रात लहरा गया
आज माघ में फागुन का दिन आ गया

बीत गई जैसे कि शीत की साधना
जीत गई यह वासंती आराधना
पकड़ प्रात की बाँह कि जो कहने लगी -
‘आज तुझे देना है बड़ा उलाहना

छोड़ नींद में निर्मोही तू कौन देश में छा गया’
आज माघ में फागुन का दिन आ गया।

धरती और गगन के बीच खुली दूरी
भरा भरा सौभाग्य उषा का सिंदूरी
गम गम गमक उठी सुधियों की केतकी
या कि प्राण-मृग की फूटी है कस्तूरी

जिसे ढूँढता सा मेरा मन अपने ही भरमी गया
आज माघ में फागुन का दिन आ गया।

दिग्वधुओं ने पेड़ों पर ली अंगड़ाई
चल अंचल से खुली शिशिर की गहराई
डूबा मैं छन भर को डूब गई वाणी
पर बजती ही रही प्यार की शहनाई

चढ़कर जिसकी लय पर मेरा गीत नया स्वर पा गया
आज माघ में फागुन का दिन आ गया।