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प्रणाम / विद्याधर द्विवेदी 'विज्ञ'

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सौ सौ शूलों सा लगता है प्रिये! प्रणाम तुम्हारा।

चीख रहा मेरे अंतर में दर्द तुम्हारे मन का
रोम-रोम से फूट रहा है अट्टहास बंधन का
काँप रही धरती की छाती आसमान भरमाया
चिहुँक-चिहुँक उठता सूने में सोया प्राण विजन का

अंधकार से लड़-लड़ आता पागल नाम तुम्हारा।

आज तुम्हारी आँखों में जो आँसू डोल रहे हैं
भावी कल के बँधे प्यार की गाँठें खोल रहे हैं
लेकिन कुछ न समझ पाते ये सुधि के घन मतवाले
दूर देश से आकर मेरा साहस तोल रहे हैं

भारी ही भारी रहता है मन अविराम तुम्हारा।

फिर भी तुमने भेज दिया जो यह प्रणाम का पानी
उतर पड़ा मेरी आँखों में बन कर क्र्रूर कहानी
पागल! तुमने दर्द न जाना व्यंग्य बाण यों मारा?
धीर नीर सा ढुलक पड़ा है काँपा स्वर अभिमानी

लेकिन मैं न हिला तृण भर भी साहस थाम तुम्हारा।

प्राण! न जाना भूल कि मेरा दर्द और भी भारी
तड़प रही मेरी आँखों में कितनों की लाचारी
बड़े पुण्य के बाद मिली है जीवन की यह ज्वाला
इसी लपट में जल जाएँगे बंधन के व्यापारी

किंतु आज तो देख रहा हूँ – तमाम तुम्हारा!