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मैं आज भी न गाता / विद्याधर द्विवेदी 'विज्ञ'
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मैं आज भी न गाता।
कल की व्यथा नयन में, साकार हो गई है
यह राह जिंदगी की, मझधार हो गई है
उठती हुई लहर में, गिरती हुई लहर में
मन टूट सा रहा है, स्वर साज भी न पाता।
तम की घनी गुहा में, जो दीप जल रहा है
उस ज्योति की शिखा पर, यह प्राण पल रहा है
पर भाव की धरा पर, ढलता हुआ सितारा
भीगे हुए गगन से, आवाज़ भी न पाता।
भीगे हुए गगन को, ऊषा सँवार लेगी
खोये हुए स्वरों को, कोयल पुकार लेगी
ये स्वर उमड़ उठे हैं, पर राह जल रही है
चिर दग्ध वर्तिका सी, यह ज़िंदगी जलाता।