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बिछुरे होयँ जु मिलैं प्रान-धन / हनुमानप्रसाद पोद्दार
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बिछुरे होयँ जु मिलैं प्रान-धन, गए होयँ तौ आवैं।
आठौं जाम बसैं उर-मंदिर, कबहुँ न इत-उत जावैं॥
जब मन होय प्रगट ह्वै बाहर, रूप-सुधा बरसावैं।
भाँति-भाँति रस-दान-पान करि मधुर-मधुर मुसुकावैं॥
करैं अचगरी, अधरामृत-रस अबिरल पियैं-पियावैं।
सब बिबधान दूर करि मोकौं मोहन अंग लगावैं॥
जब मन होय छिपैं पुनि उर-घर, लीला ललित रचावैं।
सुपन-जागरन रहैं संग नित, अंग-अंग बिलसावैं॥
समुझैं नायँ रहस्य अग्य जन, आय-आय समुझावैं।
जानि बियोगिनि ग्यान-दान दै, धीरज मोय बँधावैं॥
मेरौ पलहू कौ बियोग वे प्यारे सहि नहिं पावैं।
सखि! तुम तौ रहस्य सब जानौ, हम न कबहुँ अरगावैं॥