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सखि! क्या हु‌आ मुझे / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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सखि! क्या हु‌आ मुझे अब नहीं दिखायी देता तन तेरा।
दीख रहा मुस्काता केवल मधुर श्यामसुन्दर मेरा॥
अनल-‌अनिल-‌आकाश-धरा-जल-सबमें मधुर कराता स्पर्श।
मनुज-दनुज-सुर-पशु-पक्षीमें छिपा दिखा मुख देता हर्ष॥
स्वप्न-जगत्‌‌में भी रहता नित मधुर श्यामसुन्दर छाया।
मोहन मुख दिखलाता, हरकर मिथ्या सभी मोह-माया॥
रहा नहीं कुछ भी, को‌ई भी, एक श्यामसुन्दरको छोड़।
सबमें सभी ओर दिखता है मधुर मुस्कुराता रणछोड़॥