सुनौ सखि! यह अनुभव की बात।
घुलीं मिली मैं रहूँ स्याम प्रियतम सौं सब दिन-रात॥
मन-मति-इंद्रिय धन्य होत नित, करत स्याम-संस्पर्स।
जग के सब मिटि गए दुःख-सुख द्वंद्व विषाद-प्रहर्ष॥
मैं हूँ अथवा हैं वे प्यारे, रह्यौ न तनिकहु ग्यान।
’मैं’-’तू’ की मिटि गई कलपना, रह्यौ न निज-पर-भान॥
करिबेवारी रही न अब मैं, न्यारी तिन तें नेक।
कौन, कहा सुख दै अब काकौं, भए निरंतर एक॥