भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
उड़ीक / नीलाभ
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:47, 2 मार्च 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नीलाभ |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
मेरे दिल में अब भी उसकी उड़ीक बाक़ी है
जो मेरे कानों में कह गई थी
मैं आऊँगी, ज़रूर आऊँगी
और काख़-ए-उमरा के दर-ओ-दीवार हिलाऊँगी
एक कर दूँगी ये महल-माडि़याँ
दिन चमकीले हो जाएँगे
शीशे पर पड़ते सूरज के लिश्कारे की तरह
साफ़ पानी से भरे गिलास की तरह
रातें प्रेम में सराबोर होंगी
पसीना बहेगा
पर तेज़ाब की तरह चीरेगा नहीं आँखों को
नई खिंची शराब की तरह मदहोश कर देने वाले दिन होंगे
नए ख़ून के दिन
नए ख़ून के दिनों की तरह