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मैं हूँ एकमात्र उनकी ही / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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मैं हूँ एकमात्र उनकी ही, वे ही एकमात्र मेरे।
रहा न मेरे मन को‌ई, जो मुझको अपनी कह टेरे॥
इसी भाँति उठ गया सभीपरसे अब मेरा भी अधिकार।
जबसे हु‌ई समर्पित, जबसे की प्रियतम ने अंगीकार॥
देह कहीं भी रहे, इसे दे को‌ई चाहे मन का प्यार।
अथवा इसे सताये को‌ई, देता रहे सदा दुत्‌‌कार॥
को‌ई कैसे भी माने, बरते इसको इच्छा अनुसार।
मुझसे मतलब नहीं, देहसे ही यह सारा है यवहार॥
मैं तो बन सकती न किसीकी ममताकी अब वस्तु कभी।
‘मेरे’-‘तेरे’ के द्वन्द्वात्मक नष्ट हु‌ए सपर्क सभी॥
वे मेरे, मैं उनकी अब, बस, रहा एक ही यह सबन्ध।
कटे मोह-ममताके सारे छोटे-बड़े विविध-विध बन्ध॥