भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैं हूँ एकमात्र उनकी ही / हनुमानप्रसाद पोद्दार
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:21, 6 मार्च 2014 का अवतरण
मैं हूँ एकमात्र उनकी ही, वे ही एकमात्र मेरे।
रहा न मेरे मन कोई, जो मुझको अपनी कह टेरे॥
इसी भाँति उठ गया सभी पर से अब मेरा भी अधिकार।
जबसे हुई समर्पित, जबसे की प्रियतम ने अंगीकार॥
देह कहीं भी रहे, इसे दे कोई चाहे मन का प्यार।
अथवा इसे सताये कोई, देता रहे सदा दुत्कार॥
कोई कैसे भी माने, बरते इसको इच्छा अनुसार।
मुझसे मतलब नहीं, देह से ही यह सारा है व्यवहार॥
मैं तो बन सकती न किसी की ममता की अब वस्तु कभी।
‘मेरे’-‘तेरे’ के द्वन्द्वात्मक नष्ट हुए संपर्क सभी॥
वे मेरे, मैं उनकी अब, बस, रहा एक ही यह सबन्ध।
कटे मोह-ममता के सारे छोटे-बड़े विविध-विध बन्ध॥