मिले रहते मुझसे दिन रात / हनुमानप्रसाद पोद्दार
मिले रहते मुझसे दिन रात। कराते-करते मनकी बात॥
न करने देते कुछ भी और। लगे रहते पीछे सब ठौर॥
स्वप्नमें भी न छोड़ते साथ। वहाँ भी पकड़े रहते हाथ॥
तुड़ाकर जगके सब सबन्ध। बाँधकर निज ममताके बन्ध॥
दान कर अपना रसमय प्यार। नचाते निज इच्छा-अनुसार॥
प्राप्तकर मैं अपूर्व आनन्द। अतीन्द्रिय निर्मलतम स्वच्छन्द॥
न कुछ भी भाता मुझको अन्य। अनुग मैं रहती नित्य अनन्य॥
स्वयं भी रहते नहीं स्वतन्त्र। बने नित मेरे ही परतन्त्र॥
दुःख-सुख रहे न पृथक् नितान्त। हो गया भेद-भाव सब शान्त॥
इसीसे मेरे सुखके हेतु। उड़ाते दिव्य प्रेमका केतु॥
स्वयं बन मेरे मनकी मूर्ति। प्रकट कर मधुर नित्य नव स्फूर्ति॥
विलक्षण देते नित रस-दान। स्वयं भी करते शुचि रस-पान॥
अनोखी उनकी लीला सर्व। दूर कर सारे मिथ्या गर्व॥
खींचती नित अपनी ही ओर। सदा रखती आनन्द-विभोर॥
एक ही बने नित्य दो रूप। कर रहे लीला मधुर अनूप॥