भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सखी! जो रूठे स्याम / हनुमानप्रसाद पोद्दार
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:02, 6 मार्च 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हनुमानप्रसाद पोद्दार |अनुवादक= |स...' के साथ नया पन्ना बनाया)
सखी! जो रूठे स्याम सुजान।
कहा बस मेरौ, सुखी रहैं वे मो प्राननि के प्रान॥
रूप-सुधा-रस मधुर पान-हित नित्य नयन-मन तरसत।
आकुल प्रान रहन नहिं चाहत, छिन-छिन मरनहि करषत॥
जो सरीर पाँवर प्रीतम ने दीन्हौ या बिधि त्याग।
सो अब निस्चय ही छूटैगौ महामंद, हतभाग॥
एक बात सखि! मेरी रखियो, पूरी करियो साध।
स्याम तमाल-तरोवर दीजौ बाहु-लता सौं बाँध॥
नित्य सँभारत रहियो, जासौं खान न पावैं काग।
कबौं आइ प्रिय के देखत पुनि प्रान उठैंगे जाग॥