भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सखी! जनि करौ अयानी / हनुमानप्रसाद पोद्दार

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:34, 6 मार्च 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हनुमानप्रसाद पोद्दार |अनुवादक= |स...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सखी! जनि करौ अयानी बात।
प्राननाथ की निंदा करि जनि करौ हि‌ए आघात॥
मेरे जीवन के जीवन वे सुखी रहैं दिन-रात।
मोय सुनावौ तुम तिन के गुन मधुर, कलित कुसलात॥
दूर रहैं या पास, न मो तैं वे पलहू बिलगात।
अंतर मेरे बसे निरंतर रहत, न इत-‌उत जात॥
ताप जु रहै नैकु मो अंतर, जरैं सुकोमल गात।
तातैं रहैं मोद-सीतलता, सुख नहिं हि‌एँ समात॥
मोय दुखी जो देखैं छिनहू, रहैं सतत बिललात।
तिन कें सुख सखि! मेरे हिय नित सुख-सागर लहरात॥