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दूर रहें या पास / हनुमानप्रसाद पोद्दार
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दूर रहें या पास, नित्य ही रहते एक साथ निर्बाध।
लहराता अनन्त सागर है, भरा प्रेम-रस-अमृत अगाध॥
उठती रहतीं विविध भाँतिकी ऊपर लहरें क्षुद्र-महान।
लोग देखकर उन्हें लगाते दूर-पासका मन अनुमान॥
हम दोनों नित एकरूप हैं, एक तव हैं नित संयोग-।
नित्य मिलन रहता अटूट, हो चाहे विप्रलभ-सभोग॥
नित्य मिलन, नित रस-आस्वादन, नित्य अतृप्ति, नित्य नव चाह।
मिलन विरहमय, विरह मिलनमय, लीलोदधि विचित्र अविगाह॥
मोद-विषाद, हास्य मृदु, रोदन, निपट निराशा, अति उत्साह।
परम मधुरतम, परम दिव्य, शुचि लीला रस-माधुरी-प्रवाह॥