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विषय-कामना, भोग-रति / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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विषय-कामना, भोग-रति इन्द्रिय-सुखका चाव।
नहीं तुम्हारे हृदय में ये तीनों दुर्भाव॥
इह-परके सुख-भोग से तुम को सहज विराग।
मेरे सुख में ही सदा पूर्ण नित्य अनुराग॥
छोड़ न सकता इसीसे प्रिये! तुहारा संग।
अनुपम रस मिलता मुझे, मधुर नित्य नव रंग॥
रहता प्यारी! सदा मैं बसा तुहारे पास।
क्षणभर भी हटता नहीं, करता नित्य निवास॥
हर स्थितिमें, हर समयमें, शुचि आनन्द-निधान।
लेता प्रेमानन्द-रस स्वयं बिना व्यवधान॥
देख-देख तुम रीझतीं, करतीं मधु रस-दान।
तुम ही मेरी हो परम शुचितम सुखकी खान॥
बिका तुहारे हाथ मैं, इन भावोंके मोल।
तो भी ऋण न चुका सका, कैसे तुले अतोल॥