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प्रिये! तुम्हारी मूर्ति नित अपृथक्‌ / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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प्रिये! तुहारी मूर्ति नित अपृथक्‌, हिय कौ अंग।
जुड़ी रहत हिय सौं सदा सुधा-सरस लै संग॥
मधुर मनोहर परम यह पै न कबहुँ जड-तव।
चेतन घन आनंदमय लि‌ऐ विचित्र सिवत्व॥
नित अभिन्न, पै भिन्न नित, लै सँग सखिन समूह।
खेलत मो सँग लै तिनहि, जो निज काय-व्यूह॥
नित्य मिलन नव, नित्य नव लीला-रस-संचार।
बढ़त बिलच्छन नित्य नव, सुख-सौंदर्य उदार॥
सखिदल सकल दुरा‌इ जब खोलि सुरस-भंडार।
पियौ-पियावौ रस अमित नित बिनु प्रकृति विकार॥
मो सुख-निधि में परम सुख उपजत नित्य नवीन।
बढ़त नित्य सुख-लालसा, नव-नव अवधि-विहीन॥
नित अतृप्ति नित तृप्त में, नित कामना अकाम।
सुख-घन में सुख की स्पृहा, अकथ प्रेम के धाम॥