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वसन्त / राजेश चेतन
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सर्दियों की कँपकँपी का अन्त है
दर पे दस्तक दे रहा वसन्त है
फूल केसर का हवा में झूमता
पीत वस्त्रों से सजा ज्यों सन्त है
काम कोई कैसे बिगड़े इस घड़ी
दे रहा आशीष जब इकदंत है
देखिए कुदरत की रंगत देखिए
गंध कैसी छाई दिगदिगन्त है
प्यार का खुला निमंत्रण है तुम्हें
प्रेम की भाषा सखी अनन्त है