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सिर और सेहरा / हरिऔध

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 सोच लो, जी में समझ लो, सब दिनों।

यों लटकती है नहीं मोती-लड़ी।

जब कि तुम पर सिरसजा सेहरा बँधा।

मुँह छिपाने की तुम्हें तब क्या पड़ी।

ला न दें सुख में कहीं दुख की घड़ी।

ढा न दें कोई सितम आँखें गड़ी।

मौर बँधाते ही इसी से सिर तुम्हें।

देखता हूँ मुँह छिपाने की पड़ी।

अनसुहाती रंगतें मुँह की छिपा।

सिर! रहें रखती तुम्हारी बरतरी।

इस लिए ही हैं लटक उस पर पड़ी।

मौर की लड़ियाँ खिले फूलों भरी।

पाजियों के जब बने साथी रहे।

जब बुरों के काम भी तुम से सधो।

क्या हुआ सिरमौर तो सब के बने।

क्या हुआ सिर! मौर सोने का बँधो।