क्या से क्या / हरिऔध
धूल में धाक मिल गई सारी।
रह गये रोब दाब के न पते।
अब कहाँ दबदबा हमारा है।
आज हैं बात बात में दबते।
आज दिन धूल है बरसती वाँ।
हुन बरसता रहा जहाँ सब दिन।
तन रतन से सजे रहे जिन के।
बेतरह आज वे गये तन बिन।
आज बेढंग बन गये हैं वे।
ढंग जिन में भरे हुए वु+ल थे।
बाँधा सकते नहीं कमर भी वे।
बाँधाते जो समुद्र पर पुल थे।
जो रहे आसमान पर उड़ते।
आज उन के कतर गये हैं पर।
सिर उठाना उन्हें पहाड़ हुआ।
जो उठाते पहाड़ उँगली पर।
हैं रहे डूब वे गड़हियों में।
बेतरह बार बार खा धोखा।
सूखता था समुद्र देख जिन्हें।
था जिन्होंने समुद्र को सोखा।
जो सदा मारते रहे पाला।
वे पड़े टालटूल के पाले।
आज हैं गाल मारते बैठे।
जंगलों के ख्रगालने वाले।
तप सहारे न क्या सके कर जो।
मन उन्हीं का मरा बहुत हारा।
हैं लहू घूँट आज वे पीते।
पी गये थे समुद्र जो सारा।
सब तरह आज हार वे बैठे।
जो कभी थे न हारने वाले।
आप हैं अब उबर नहीं पाते।
स्वर्ग के भी उबारने वाले।
पेड़ को जो उखाड़ लेते थे।
हैं न सकते उखाड़ वे मोथे।
वे नहीं कूद फाँद कर पाते।
फाँद जाते समुद्र को जो थे।
जो जगत-जाल तोड़ देते थे।
तोड़ सकते वही नहीं जाला।
वे मथे मथ दही नहीं पाते।
था जिन्होंने समुद्र मथ डाला।